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Showing posts from September, 2015
1 * देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब। बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब॥ भावार्थ:- देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गंधर्व, किन्नर और निशाचर सबको मैं प्रणाम करता हूँ। अब सब मुझ पर कृपा कीजिए॥ 2.  * करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥ सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राउ॥3॥ भावार्थ:- मैं श्री रघुनाथजी के गुणों का वर्णन करना चाहता हूँ, परन्तु मेरी बुद्धि छोटी है और श्री रामजी का चरित्र अथाह है। इसके लिए मुझे उपाय का एक भी अंग अर्थात्‌ कुछ (लेशमात्र) भी उपाय नहीं सूझता। मेरे मन और बुद्धि कंगाल हैं, किन्तु मनोरथ राजा है॥3॥ 3 * जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥ ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥4॥ भावार्थ:- राजा जनक की पुत्री, जगत की माता और करुणा निधान श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री जानकीजी के दोनों चरण कमलों को मैं मनाता हूँ, जिनकी कृपा से निर्मल बुद्धि पाऊँ॥4॥ * बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥ बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥1॥ भावार्थ:- मैं श्री र